हाथों की लकीरों को पहचानना
नामुमकिन था उस शाम
जब तुम कलम को अपनाना
बेहतरीन समझा खुद के नाम ।
अंधेरों की छत में खुद को छुपा के
जलते हुए अंगारों में खुद को दफना के
महसूस हुए दर्द को बयां करने का
जुनून: जिसमें जान देखकर तुम खुद को दिया
आज करूं मैं उसका जिक्र एक कलम से जो है तेरे नाम पे ।
खेलती थी छुपम -छुपी,नाम था उसका भय ।
न परवाह था उसे रात व दिन और सूरज व चांद का मोह
आखिर क्या था उस शाम से शुरू राहों में
जो तेरी हिम्मत को हरा देता था कुछ ही क्षण में ।
कभी तू खुद को छुपा के
तो कभी खुद के सपनों को मार के
दुनिया की फ़िक्र में खूब डूब जाती
क्या पता है तुझे ,
ये दुनिया की नज़रें तुझे क्या-क्या नहीं कहती ?
हां ! सपनों को दफनाना मजबूरी थी तेरी ।
पर सपनों को दफनाके खुद को सजाना
क्या गुनाह नहीं उस पल कल की ?
दफनाना भी जरूरी था सबके खातीर ।
आखिर तेरे हाथों की लकीरों में कलम की छाया भी तब गुमनाम थे ।
आज क्यों कांप रही है यह तेरी हाथ
जब पकड़ ली है तू यह कलम खुद के नाम।
रोकना था तो उस दिन रुक जाती
जब तेरा कलम को दुनिया ने बोझ बताई ।
पर मन से हो या तन से तू क्या उससे बिछड़ पाया
जीवन है तेरा; तेरा खून से भी ज्यादा प्यारा
न कोई बहाने में खुद को बहाके ;बस तू उसे बहने दे ...
और एक कलम तेरे हाथ पे सजने दे ।
~मितांजलि पधान
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